आलोचक की कठिन यात्रा

 कुछ व्यक्ति आपके नज़दीक होने का दावा पेश करेंगे। मग़र आपके किसी एक कदम के आलोचक होंगे फिर एक समय के बाद वो आपके बारे में मिथकों से भर जायेगे परन्तु हर एक मिथक टूटने का एक वाज़िब समय तय होता है। कभी कभी किताबो के ज़िल्द पर लिखे शीर्षक से ज्यादा महत्व पूर्ण उसकी व्याख्या होती है जैसे अपना और अपनत्व दोनों क्षणभंगुर है  व्यक्तिवादी तंत्र में दोनों की सार्थकता पर सवाल भी खड़े किए जा सकते है क्योंकि जो अपने आपके  आलोचक अपने ही मिथकों से बनेंगे वो एक आलोचक होने से उलट एक घोरनिराशावादी व्यक्ति हो रहे होते हो। किसी भी व्यक्ति के संदर्भ को समझने के लिए उस परिस्थिति में जाकर उसे सहानुभूति और समानुभूति की कसौटी पर रख कर कसना पड़ता है अपनी स्वेच्छाचारिता लादने की बजाय उस व्यक्ति की विचार क्रांति का मर्म समझना पड़ता है और यदि आप इस रास्ते पर जाकर किसी के आलोचक है तो आप अपने के हितैषी है और ऐसा नही तो आप उस व्यक्ति के लिए बाधक है।  

 


किसी भी किताब की अनुक्रमणिका पढ़ कर किताब पर लिखे अक्षरों का मोल और उसके भावो को समझना आसान नही है उसके लिए हमे किताब के अक्षर अक्षर से गुजरना पड़ता है और उसके मर्म को समझना पड़ता है तभी जाकर आप व्यक्ति की मानसिकता और उसकी दशा व दिशा को समझ सकते है। हालांकि कई मामलों में व्यक्ति भावनात्मक संबंधों में आने वाली दूरी के कारण या फिर किसी व्यक्ति की नजदीकी के कारण दूसरे के आलोचक हो जाते ऐसा होना स्वाभाविक प्रक्रिया है परंतु इससे यदि व्यक्ति अपनी सोच को लेकर कुंठित हो जाये तो फिर इसे आलोचक की प्रतिछाया से 84 कोस ही रहना उचित होता है।

जीवन एक सतत यात्रा है इसके हर पड़ाव पर मिलने वाले पात्र जो आलोचक है वो हमारे जीवन मे सफलता के आयाम को छूने में एक सीढ़ी का काम करते है। 

अभिषेक क्षितिज

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