गंगा की तमाम पवित्रता समेटे घाट दर घाट जब तुम बनारस में भीतर और बनारस तुम्हारे भीतर समा रहा होता है तब बस एक एक ही राग सुनाई देता है भोले-भोले, चारो तरफ भगवा है, तो कुछ नए रंग भी है, एक गली है जिसमे में "भो***ड़ी के" का स्वर से लेकर 'बोलों बाबा विश्वनाथ की जय' तक का समागम मिलता है।
बनारस की गलियों को देखकर लगता है जैसे वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत यहीं से प्रतिपादित हुआ हो, चाय की दुकानों में एक तरफ वही बनारसिया ठाट में बैठे काका तो एक तरफ यूरोप, अमेरिका की धरती के वासिंदे बैठे चाय की गर्माहट के जरिये बनारस के एहसास को अपने भीतर घोलने में लगे है।
घाट के एक तरफ मुंडन कराते (पुत्र पुत्री प्राप्ति के मान्यता के पश्चात) लोग और दूसरी तरफ जलती लाशे। ये अदभुद संयोग बनारस में है, जहां से जीवन के प्रारंभ मुक्ति का सार दिखता है कि प्रारंभ और मुक्ति के बीच बस पवित्र गंगा की तरह जीवन है जिसे निस्वार्थ भाव से जीते रहिए।
विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर की नवीनता ने बनारस के पुराने तंग गलियों वाले रास्तो को तो जरूर बदल दिया मग़र बनारसी तेवर आज भी वही है। बाबा विश्वनाथ के दर्शन का आनंद तो जैसे माँ के हाँथ के भोजनोपरांत होने वाला भाव है जिसमे सुख, सन्तुष्टि,शांति तीनो का मेल है
बनारस वो शहर है जिसे हम महसूस करते आये है कभी खुद बनारस जाकर तो कभी किताबो में, कभी किस्सों में, कभी कहानियों में, कभी बनारसी घराने के संगीत में, कभी बाबा विश्वनाथ के प्रसाद में तो कभी बनारसी पान में। ये वो शहर जो आपके भीतर कही न कही ठहरा हुआ है पवित्रता को समेटे हुए।
@क्षितिज
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