एक तरफा इश्क़ क्यू ये सवाल किया था ज़बाब में मौन था मैं मग़र मेरे भीतर उसका ज़बाब पल रहा था।
ज़बाब था कि एक तरफा इश्क़ खुदा की इबादत की तरह है। जैसे खुदा से कुछ मांगते नही बस इबादत करने के लगें रहते है वैसे ही मैंने कभी तुम्हारा प्यार नही माँगा बस अपनी तरह से प्यार दिया ही था। मेरे लिए कुरान की आयतों की तरह पवित्र तेरे लिखे हर एक मैसेज थे, तेरी कही हर बात में गीता का पूरा सारांश था। तुझे बस मैंने एक ओहदा दिया था जो तुझे खुदा बना दिया जैसे मेरी इबादत करते रहने के बावजूद वो खुदा बस छिनता ही रहा एक एक करके सबसे करीब लोगो को या जिसे चाहा उसे। वैसे ही इबादत के बदले दूरियां ही आई। तुमने भी खुद को खुदा से कमतर नही रखा। मग़र जैसे आज तक खुदा की इबादत नही रुकी फिर तुम्हारी कैसे। एक दिन खुदा जरूर अपनी चौखट से बाहर आकर मुझसे मेरी रज़ा पूछेगा वो इबादत के बदले कुछ देना चाहेगा मग़र तब तक शायद दरीचे के पास बैठ कर पुराने दिन गिनते हुए मुझे उससे कुछ लेना बेमानी से लगेगा तब हमेशा की तरह मैं तुम्हारी खुशियों को उससे मांग लूंगा क्योंकि इबादत भी अब तक उससे तेरी सलामती की करता रहा, इस इबादत में मेरे अपने कुर्बान हो चुके है अब न तुम तुम मेरे अपने रहे न खुदा न मैं ख़ुद अगर कुछ बचा है तो वो इबादत और मेरा पहला इश्क़।
बशीर जी की ये लाइने उन जैसे खुदाओं को परिभाषित कर देती है
ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
#बशीर बद्र
2 टिप्पणियाँ
👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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