"अब तुम बड़े हो गए हो "
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इंसान पैदा हो जाता है तभी से बड़ा हो जाता है क्योंकि वह प्रजजन की एक पूरी प्रक्रिया से गुजर कर महिला या पुरुष के रूप में जन्म लेता है । जिस दिन जन्म लिया जाता है उस दिन तुम बड़े हो जाते हो किसी के रिश्ते में, किसी के सम्मान में, किसी के जज्बात में । जैसे जैसे उम्र पड़ाव दर पड़ाव शिशु से बाल , बाल से किशोर , किशोर से तरुण अवस्था तक पहुचती है आपके लिए बड़े हो गए हो के मायने बदलते जाते है।
जब आप शिशु है तो आप रोइये किसी अधिकार के लिए ,किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए , किसी के साथ के लिए उचित है परन्तु जैसे ही बाल अवस्था मे आते है रोने में, हंसने में,कला के चयन में लिंग विशेष के अधिकार को मढ़ा जाने लगता है। जैसे तुम लड़के हो तो कहा जाने लगेगा लड़कियों की तरह रो रहे हो, गाना गा रहे लड़की हो क्या?, लडकीयो की तरह बात करते हो! वही लड़की को कमतर उलाहना नही प्राप्त होती तुम तो लड़को जैसे हंसती हो, लड़को की तरह चलती हो , इस तरह के वाक्यो के साथ बाल से किशोर वर्ग तक का जीवन जी रहे होते है और आप बड़े हो गए है ये नही करना चाहिए इसका एहसास कराया जाता रहेगा।
असल बात तो यह है कि हम बड़े हो रहे या छोटे यह हमारा व्यवहार हमारी जीवन पद्धति हमारा विचार तय करेगा हमारा निर्णय लेने की तरीका हमे बड़ा बनाएगा । न कि समाज की यह पद्धति जहाँ भावनाओ को लिंग का आधार बना दिया गया। उन पुरातन दंभी वाक्यो की कसौटी में कस, खरा उतरने को बड़ा होना यदि कहा जाता है तो आज के युवा को छोटा ही होके रह जाना चाहिये।
आज समाज मे दो पीढ़ी के मध्य संवाद में कटुता का भाव निरंतर बढ़ता जा रहा उसका कारण यह नही को नवीन पीढ़ी पूर्ण रूपेण संस्कारहीन है पुरातन पीढ़ी की भी अपनी एक संकीर्ण मानसिकता इसकी बराबर की भागीदार हो सकती है। क्योंकि यहां जब विचारों को सुनने और स्वीकार करने की बात आती है तब नवीन पीढ़ी के बाल,किशोर,तरुण,युवा को यह कह दिया जाता है कि तुम अभी इतने बडे नही हुए , यही से एक विरोधाभास का आरंभ हो जाता है ।
जिस बालक बालिका को पैदा होने से लेकर उसकी वर्तमान तक "तुम बड़े हो गए हो" का पाठ पढ़ा कर तैयार किया गया उससे अचानक ही बड़े होने का कद ही छीन कर उसे तनावपूर्ण स्थिति में पहुचा दिया जाता है वहाँ पर आप निर्णायक की भूमिका खो देते है। यही स्थिति महिला समाज की भी है । उन्हें अहम मोड़ पर हमेशा समाज के दोयम दर्जे के व्यवहार का सामना करना पड़ता है उन्हें कह दिया जाता है तुम इतनी बड़ी नही की पुरुषों की तरह निर्णय ले सको।
जब तक हम सचमुच बड़े हो जाते है तो हम स्वयं भी उस पुरातन भाव के साथ समानुभूति रखने लग जाते है और स्वयं उसी चाल में चलने लगते है वो विचार जो कभी बड़े होने के दंभ के विरोधी होते है वो आज ख़ुद बड़े होने के अहमं से भर जाते है इसलिए आज भी वो ही सामाजिक दशा लगातार सदियों से एक चली आ रही।
स्वस्थ सामाजिक संस्कृति में विचारों की अपनी एक जगह है जहां आपसी सामंजस्य , संवाद, विभेद से परे जीवन संस्कृति को अपनाए हो। "जहा बड़े हो गए हो" कि संज्ञा आपके रोने, हंसने, गाने ,नाचने,किसी कला के अपनाने ,भावनाओं को प्रकट के करने पूर्ण आजादी हो और स्वीकार की जा सके न कि उनका लिंगकरण किया जाए। जब ऐसे स्वस्थ समाज का निर्माण होगा तभी सही मायने में "हम बड़े हो गये" का भाव सत्य होगा।
अभिषेक गौतम
"क्षितिज"
1 टिप्पणियाँ
bahut hi sundar vichar
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