प्रेम में स्वीकार्यता कितनी आवश्यक है इसके बारे उस व्यक्ति से पूछिये जो प्रेम की परिभाषा गढ़ने के समय एक विकल्प की तरह रहा हो। क्योंकि विकल्प से चुनाव तक कि यात्रा में विकल्प बहुत से चुनाव की दहलीज़ पर ठोकर खाकर गिर चुका होता है। उसे हर बार सिर्फ अपनेपन की एक झलक औऱ फिर एक दायित्व का बोध प्राप्त होता है ।
हालांकि हर बार स्वीकार्यता की परिभाषा एक समान नही होती है । प्रेम में समर्पण , त्याग, और हर एक शब्द पर उसी तरह भरोसा करना जैसे कि दर्पण में खुद का चेहरा देखना। जीवन मे हर व्यक्ति को एक न एक बार प्रेम के बसीभूत होना पड़ता है पर आवश्यक नही की वो प्रेम अपनी पूर्णता को प्राप्त करे । हालांकि प्रेम में पूर्णता स्वयं में एक प्रश्न है प्रेम एक अनन्त अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है अब वो नायक नायिका अथवा प्रेम को जीने वाला कोई भी व्यक्ति की स्वयं की स्थिति पर निर्भर करता है कि अमुक व्यक्ति की उपस्थिति से प्रेम है अथवा अमुक व्यक्ति से प्रेम है।
मेरा मानना है चुनाव की प्रक्रिया से प्राप्त प्रेम एक सामंजस्य बैठाया रिश्ता मात्र है । प्रेम की परिभाषा मेरे मन मे अगर कुछ है तो प्रेम केवल समर्पण है जिसमे आप अपनी सीमा के अतिरिक्त किसी भी बंधन में बंधे नही होते है आप अमुक की उपस्थिति मात्र से नही बल्कि उसकी अनुपस्थिति में भी उसके लिए जी रहे हो । हालांकि की अनुपस्थिति में वो सिर्फ वो हमारे अंतर्मन में ही है परंतु उन एहसासों को जीना भी एक अपनी एक अलग जीवन प्रवृत्ति है।
सदैव प्रेम की पूर्णता की कल्पना व्यर्थ है यदि प्रेम है तो वह अपना स्वयं का विस्तार करता हुआ आप में समाहित रहेगा ।
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