परन्तु ये आंकड़े क्या कहानी कह रहे मेरा ध्यान उस ओर अधिक है।
१ इस पूरे प्रचार के दौरान और 2 साल से जो मुद्दे थे क्या उनका मतदान व्यवहार में असर पड़ा?
२ क्या कोरोना में सरकार की विफलता मतदान करते समय दिखी
३ क्या सरकार के विकास के दावे सही साबित हुए लोग लाभान्वित हुए
४ क्या सरकार के द्वारा चुनाव के समय साम्प्रदयिकता औए जातीयता के प्रश्न खड़े कर ध्रुवीकरण किया गया जो सफल रहा?
५ क्या विपक्ष अपनी बात पहुचाने और जातीय गठबंधन की जोड़ तोड़ करने में सफल नही हो सका?
ये इस तरह के कितने ही सवाल आज शाम से सभी मीडिया संस्थानों द्वारा उठाये जा रहे और लोकतंत्र की दुहाई देते हुए कितनी आसानी से आकड़ो में जाति भेद, और धार्मिक भेद की बात सामने आ रही।
किस जाति ने कितने प्रतिशत वोट किसे दिया?किस धर्म के व्यक्ति ने किसे वोट दिया? पूरी बहस और पूरा चुनाव इन्ही मुद्दों पर केंद्रित रहा और आज भी वही जारी हैं
किसी भी राजनीतिक विश्लेषक, एंकर,नेता, को पिछले चुनाव प्रचार के समय सिर्फ जाति और धर्म पर ही डीबेट करते देखा है, विकास के नाम पर 2 या 3 मिनट बोलकर चुप। फिर वो अवध के नवाब की तरह मुर्गे लड़ाने वाले एंकर शुरू हो जाते है। जहाँ विकास सरकारों का प्राथमिकता होनी चाहिये और विपक्ष को उसकी जबाबदेहिता तय करने की भूमिका में वहां दोनो ही व्यक्तिगत लाभ के लिए लगें हुए है
आज जनता के असली मुद्दे गायब हो चुके है जब सरकार को जबाबदेह होना था तब वो प्रपोगेंडा फैला रही थी और विपक्ष को जब इसके खिलाफ होना था तब वो संविधान बचाने के नाम पर जातिगत गुटबंदी करने में लगे थे। चुनाव के बढ़ते चरण में ज़ुबानी जंग ऐसे बढ़ी की भाषा की मर्यादा ही लांघ गये। प्रधानमंत्री जी तो पार्टियों को आतंकी तक घोषित करने पर आ गए बेचारे भूल गए कि उन्ही की पार्टी की राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी है यदि ऐसे तत्व बाहर है तो क्या आप निकम्मे है जो देखकर अनदेखा कर रहे है। जब यूक्रेन रसिया विवाद के बीच भारतीयों को लाने की कवायद होनी चाहिए थी तब प्रधानमंत्री जी नेताओ की पार्टी में वापसी की जुगलबंदी कर रहे थे। गृहमंत्री, रक्षामंत्री, केबिनेट मंत्री, घर घर पर्चे बांट रहे।
सरकार विपक्ष औऱ जनता तीनो की कही न कही असली मुद्दों से भटकी हुई है औऱ लोकतंत्र के चौथा स्तंभ इसमें पूरी तरह से संलिप्त है। बार बार हो रहे चुनावो से सरकार अपने कार्य मे ध्यान न देकर चुनाव प्रचार में व्यस्त रह जाती है इसलिए अब भारत मे एक देश एक चुनाव की आवश्यकता आ चुकी है इससे कम से कम एक ही समय मे सारे चुनाव होने के बाद सरकारे सिर्फ विकास में ध्यान देंगी न कि आने बाले चुनावी क्षेत्रों में।
अभिषेक क्षितिज
6 टिप्पणियाँ
अत्यंत सराहनीय👌👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र
हटाएंबहुत बढ़िया गोलू ब्रो
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंमित्र एक देश एक चुनाव से समाधान निकल पाना आवश्यक नहीं , क्योंकि बहुआयामी संस्कृति , समाज एवम् प्रत्येक राज्य की समस्याओं की प्रकृति भी भिन्न है , यदि सतत विकास का मार्ग प्रशस्त करना है तो हमें चाहिए कि आधारभूत ढांचे को मजबूती दी जाए जैसे शिक्षित एवम् जागरूक मानव संसाधन राष्ट्र एवम् राज्य के मुद्दों को अलग अलग विश्लेषित करने में अधिक सफल होगी वर्ना संघीय ढाचा प्रभावित होगा एवम् लोकतंत्र भीडतंत्र में परिवर्तित होगा जिसकी परिणति तानाशाही शासन के रूप में दिखेगी।
जवाब देंहटाएंअवश्य
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